आजकल के आधुनिक माता-पिता को लगता है की उनका बच्चा कोई कंप्यूटर है, जो मन चाहे सोफ्टवेयर इंस्टाल कर सकते है , और वो सब कुछ स्कूल/कोचिंग के भरोसे छोड़ देते है, और नतीजा क्या निकलता है ?? उनका बच्चा बर्बाद हो चूका होता है ..पहले अक्सर सुनने को मिलता था-इसे तो दादा-दादी के लाड़-प्यार ने बिगाड़ कर रखा है लेकिन आज यह उलाहने कहीं खो गए हैं। ‘हम दो हमारे दो’ के इस दौर में परिवार की व्याख्या से बुुजुर्ग गायब हो चुके हैं। एक समय था जब बचपन किलकारियां भरता, आजाद और उन्मुक्त सा इधर-उधर उछलता नजर आता था। बच्चों की इसी हंसी पर बड़े बुजुर्ग कुछ भी कुर्बान करने को हमेशा तैयार रहते थे। वे अपने पोते-पोतियों के पहरेदार बन जाते थे जिनके संरक्षण में मासूम बचपन खिलखिलाता था। परिवार में बड़े हों तो बच्चे उनसे अपनी समस्याएं और विचार बांट सकते हैं। यदि परिवार एकाकी हो तो बच्चे बाहर वालों के साथ आसानी से घुलमिल नहीं पाते। पेरैंट्स अगर वर्किंग हैं तो अकेला बच्चा क्या करे। वास्तव में दादा-दादी या नाना-नानी एक सलाहकार, दोस्त और एक मददगार की भूमिका निभाते हैं।
बड़े-बुजुर्गो के सानिध्य में रहने के फायदे-:
बच्चे को दादा-दादी से कहानियां सुन कर अच्छे संस्कार मिलते हैं। बच्चों में बड़ों का आदर करने, मिलजुल कर रहने और मिल बांट कर खाने की आदतें विकसित होती हैं। ये सभी बातें संयुक्त परिवार में रहने पर ही संभव हैं।
किसी भी तरह की तनाव की स्थिति या समस्या होने पर बड़े बुजुर्गों की मौजूदगी और उनका अनुभव एक परामर्शदाता का काम करता है।
संयुक्त परिवार में बच्चे अनुशासन और संस्कार सीखते हैं। जब आपको बच्चे अपने माता-पिता का सम्मान करते देखते हैं तो वे भी यह सब अपने जीवन में अपनाने को तत्पर रहते हैं।
बड़े-बुजुर्गो के साथ नही रहने के नुक्सान-:
बच्चे गंभीर प्रकृति के हो जाते हैं क्योंकि उनसे बातें करने वाला और उनकी बातें सुनने वाला कोई नहीं होता।
रिश्ते और परिवार क्या होता है एक-दूसरे के साथ रहना क्या होता है, अपनों का प्यार क्या होता है आदि कुछ ऐसी कई बातें हैं जिन्हें बड़ों के सानिध्य के बिना बच्चे जान ही नहीं सकते।
एकल परिवार में बच्चे को कोई छोटी-मोटी तकलीफ हुई नहीं कि पेरैंट्स उसे डाक्टर के पास लेकर पहुंच जाते हैं। जहां घर में दादा-दादी हों वे बच्चे के माता-पिता को हौसला तो देते हैं ही साथ में घरेलू नुस्खों से बच्चे की छोटी-मोटी बीमारियों को कुछ समय के लिए छूमंतर कर देते हैं।
अगर पेरैंस्ट वर्किंग हैं तो उन्हें बच्चों को कहां छोड़ें जैसी समस्या का सामना करना पड़ता है। उन्हें बच्चों के लिए आया रखनी पड़ती है या क्रच में छोडऩा पड़ता है। घर में बड़े-बुजुर्ग हैं तो बच्चों को लेकर ऐसी कोई टैंशन नहीं रहती।
एकल परिवारों के बच्चे अकेले रहने में खुश रहते हैं और दूसरे के साथ एडजस्ट होना उन्हें मुश्किल लगता है। वे भीड़भाड़ वाली जगह पर भी स्वयं को असहज महसूस करते हैं।
बच्चे के उत्सुक मन में हर रोज हजारों प्रश्र उठते हैं जिनके वह उत्तर जानना चाहता है। अगर परिवार में माता-पिता के अलावा उसके दादा-दादी हों तो वह उनके साथ अपनी बातें शेयर कर सकता है जिससे उसके विचार और अधिक विकसित होते चले जाते हैं।
अगर बात की जाए दादा-दादी के साथ बच्चे के रहने की और महंगे चाइल्ड केयर सैंटर में बच्चे के एडमिशन की तो एक सर्वे के अनुसार दादा-दादी ज्यादा बेहतर हैं। जो बच्चे दादा-दादी के संरक्षण में पले थे वह केयर सैंटर में पलने वाले बच्चों की तुलना में अधिक विकसित पाए गए।
एक सर्वे के मुताबिक जिन बच्चो को बचपन में दादा-दादी या नाना-नानी का सानिध्य नही मिल पाता, ऐसे बच्चे संस्कारहिन् या कहे तो उदंड बन जाते है, जो की आगे चलकर ना सिर्फ परिवार के लिए अपितु समाज और राष्ट्र के लिए भी घातक सिद्ध होते है I
आज अगर आप गौर करे तो शहर की अपेक्षा गाँ
व में पले-बढे बच्चे ज्यादा संस्कारी और प्रतिभावान होते है, इसलिए भाग-दौर भरी इस जिन्दगी में थोडा सा समय निकालकर अपने बच्चो को गाँव जरुर घुमाए, उन्हें बड़े बुजुर्गो से मिलने का मौक़ा दे, जो शिक्षा बच्चे को बुजुर्गो से प्राप्त होती है वो दुनिया के किसी विश्वविद्यालय में नही मिलता I आज आप ये सुनिश्चित करे की इस गर्मी छुट्टी आप अपने बच्चो को गाँव ले जाकर उनको गाँव-समाज से जुड़ना सिखायेंगे, उनको दादा-दादी से मिलने का मौका देंगे .दादा-दादी से बच्चो को संस्कार मिलता है वो दुनिया के किसी स्कूल से नही मिल सकता |
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